प्रेम संग वासना : एक अनोखा रिश्ता -1
मेरा नाम साहिल है, मैं एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करता हूँ, मेरा क़द 6 फ़ीट है और मेरा रंग गेंहूआ है। मेरा शारीरिक अनुपात एक खिलाड़ी जैसा है, मेरे लिंग की लंबाई 6.5 इंच और मोटाई 2.5 इंच है।
कहने को तो यह सामान्य है मगर किसी को संतुष्ट करने के लिए प्रतिभा/अनुभव की ज़रूरत होती है न की लंबाई और मोटाई की।
दोस्तो, आज मैं आपको सुख के एक ऐसे सागर में गोते लगवाने ले जा रहा हूँ, जिसमें डूब कर आप असीमित सुख की अनुभूति करेंगे।
यह कहानी मेरे जीवन का सबसे हसीन सच है जिसे मैं अब तक भुला नहीं पाया और इस असमंजस में पड़ा रहा कि यह कहानी अन्तर्वासना पर प्रेषित करूँ या नहीं!
अंततः मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि यह कहानी अन्तर्वासना पर प्रेषित करूँ और सबके साथ अपना अनुभव बांटूँ।
अब आपका और समय नष्ट न करते हुए मैं आपको अपनी कहानी की तरफ ले कर चलता हूँ, जो प्रेम सुख, यौन सुख और भावनाओं से ओतप्रोत है।
यह घटना आज से चार साल पहले की है जब मैं दिल्ली में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत था, वहीं मेरी मुलाक़ात उससे हुई जो मेरे दिल में, मेरे दिमाग में, मेरे नसों में इस तरह समा गई कि मैं बस उसका ही होकर रह गया।
बात दिसम्बर के सर्दियों की है, जब मैं ऑफिस से निकल कर अपने कैब का इंतज़ार कर रहा था और साथ ही साथ धुएँ को अपना साथी बनाए हुए था। तभी एक बहुत ही मादक और सुरीली आवाज़ ने मुझे दस्तक दी, मैं तो एकदम स्तब्ध उसे देखते ही रह गया, क्या करिश्मा था कुदरत का, एक 23 या 24 साल की अदम्य सुंदरता की मूरत मेरे सामने खड़ी थी और शायद मुझसे कुछ पूछना चाहती थी।
मगर मेरी हालत देख कर वो भी चुपचाप वही खड़ी हो गई, हमारी चुप्पी तब टूटी जब मेरी धुएँ की डंडी ने मेरी उंगली जलाई, तब मैंने अपने आप को सामान्य किया और उससे पूछा- जी बताइये?
वो कुछ समझ नहीं पाई और वहीं खड़ी रही, शायद वो भी मेरे साथ ही मेरे कैब में जाने वाली थी और वो उसी के बारे में जानना चाहती थी।
खैर तभी हमारी कैब हमारे सामने आकर रुकी और हम उसमें बैठ गए, क्या संयोग था किस्मत का कि वो वहाँ भी मेरे बगल में ही बैठी थी और उसके शरीर की मादकता मुझे मदहोश कर रही थी, मैं चाह कर भी कुछ नहीं बोल पा रहा था क्योंकि कैब में और भी लोग थे और दूसरा कहीं वो बुरा न मान जाए।
मैं यह नहीं समझ पा रहा था कि यह मेरा प्रेम है उसके लिए या काम वासना!
वैसे भी काम और प्रेम दोनों तो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
उस दिन मेरा सफर इतनी जल्दी कैसे खत्म हो गया मैं समझ नहीं पाया, और कैब से उतरकर घर चला गया और दूसरे दिन का इंतज़ार करने लगा कि कब शाम हो और उससे मुलाक़ात हो।
पहली ही मुलाक़ात में उसका ऐसा नशा मुझ पे चढ़ा था कि मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था, बस उसी की याद आ रही थी हर पल, उसका एक एक अंग, उसकी एक एक अदा मुझे हर पल उसकी याद दिला रही थी।
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